90 के दशक की यादें आज भी दिल में एक मीठी कसक सी छोड़ जाती हैं। वो दिन जब जिंदगी इतनी तेज नहीं थी, और छोटी-छोटी चीजों में बड़ी खुशियां मिला करती थीं। आज की डिजिटल दुनिया से बहुत दूर, वो एक ऐसा समय था जब इंसानी रिश्ते और सरल जीवन का असली आनंद था।
सुबह की शुरुआत रेडियो के मधुर गीतों से होती थी। हमारे घरों में रेडियो और ट्रांजिस्टर की आवाज गूंजा करती थी, और जब कोई नया गाना आता, तो वो खास बन जाता। जैसे ही गली के नुक्कड़ पर अखबार वाले की साइकिल की घंटी बजती, पिताजी अखबार लेने दौड़ते। और अखबार के पन्नों से स्याही की महक पूरे घर में फैल जाती थी।
घर की चाय का स्वाद भी कुछ अलग ही होता था। बर्तन में धीमी आंच पर बनी हुई अदरक वाली चाय की खुशबू और साथ में गर्मागर्म पराठे। परिवार के साथ बैठकर नाश्ता करना एक रोज़मर्रा का हिस्सा था। टीवी पर दूरदर्शन के कार्यक्रमों का इंतजार होता, जब एक बार में एक ही सीरियल आता था—चाहे वो महाभारत हो, रामायण, या मालगुडी डेज़। उन दिनों का हर शो एक यादगार अनुभव होता था, जिसे पूरा परिवार एक साथ बैठकर देखता था। रविवार की सुबह को रंगोली देखना और फिर शाम को चित्रहार का इंतजार करना भी एक आनंद का समय था।
गर्मियों की दोपहरें खास होती थीं। घरों के आंगन या छत पर मम्मी और दादी-परे नानी पापड़, अचार और बड़ियाँ सुखाती थीं। धूप में सूखते आम के टुकड़ों की महक आज भी दिल में बसी है। बच्चों की दुनिया भी अलग ही होती थी। टीवी और मोबाइल से दूर, गली में क्रिकेट खेलना, पतंग उड़ाना, लुका-छिपी और पिट्ठू जैसे खेलों में दिन कैसे बीत जाता, पता ही नहीं चलता था। और जब स्कूल से लौटते समय गली के नुक्कड़ पर चूरन या बर्फ का गोला मिल जाए, तो समझो दिन बन गया।
शाम को मोहल्ले के बच्चे अपने-अपने साइकिल लेकर निकल पड़ते थे। गली की लड़कियों का रस्सी कूदना और लड़कों का कबड्डी या कंचे खेलना आम दृश्य होता था। बाजार की दुकानों में एक अलग ही हलचल होती थी। लोगों का घर-घर जाकर टीवी, कूलर या घड़ी ठीक करने वाला कारीगर आना भी सामान्य बात थी।
रात का खाना जल्दी हो जाता था, और उसके बाद पूरा परिवार छत पर बिस्तर बिछा कर तारों के नीचे सोता था। पंखा नहीं, लेकिन हाथ का पंखा जरूर चलता था। दादी की कहानियों के साथ रात की नींद कब आ जाती, इसका अंदाजा ही नहीं होता।
सर्दियों में, अलाव जलाकर उसके चारों ओर बैठकर मूंगफली छीलना और ठंड से कांपते हुए गपशप करना—यह भी एक खास याद है। त्योहारों का मज़ा भी कुछ और था। चाहे वो दिवाली पर मिट्टी के दीयों की सजावट हो या होली के रंग, हर पर्व की अपनी एक अलग धूम होती थी। बिना किसी दिखावे के, सादगी से भरी, रिश्तों से जुड़ी वो खुशियां दिल को छू जाती थीं।
90 का दशक वो समय था जब चीजें धीमी थीं, पर दिल तेज़ी से धड़कते थे—रिश्तों के लिए, छोटी-छोटी खुशियों के लिए, और उन पलों के लिए, जो हमेशा के लिए हमारी यादों में बस गए।