एक्टर बनने के लिए मुंबई आए थे असरानी, काम न मिलने पर इंदिरा गांधी से की थी शिकायत

गोवर्धन असरानी जब मुंबई पहुंचे, तो जेब में सिर्फ सपने थे। वे सिर्फ एक्टर बनना चाहते थे। लेकिन वहां हर दरवाज़ा बंद मिला। फिर भी उन्होंने हार नहीं मानी। थिएटर जॉइन किया। वहां सीखा, समझा और खुद को तैयार किया। बाद में उन्हें पुणे के फिल्म एंड टेलीविज़न इंस्टिट्यूट में एडमिशन मिल गया। वहां से पास हुए, पर काम फिर भी नहीं मिला। लगातार रिजेक्शन झेलते रहे। दो साल तक इंडस्ट्री में दर-दर भटकते रहे।
उसी दौरान इंदिरा गांधी पुणे आईं। वे उस समय सूचना और प्रसारण मंत्री थीं। असरानी और उनके दोस्तों ने उनसे शिकायत की। उन्होंने साफ कहा—डिप्लोमा के बावजूद हमें कोई काम नहीं दे रहा। इंदिरा गांधी ने बात को गंभीरता से लिया। बाद में जब वे मुंबई पहुंचीं, तो उन्होंने फिल्म प्रोड्यूसर्स से कहा—इन छात्रों को मौका मिलना चाहिए।
जल्द ही असरानी को सरकारी विज्ञापन फिल्मों में काम मिल गया। फिर उन्हें ‘गुड्डी’ में छोटा रोल मिला। जया भादुरी उस फिल्म की हीरोइन थीं।
फिल्म सुपरहिट हुई और असरानी सबकी नज़र में आ गए। यहीं से FTII से निकले एक्टर्स को भी गंभीरता से लिया जाने लगा।

इसके बाद असरानी को काम मिलना शुरू हो गया। उनके पास लगातार फिल्में आने लगीं।
उन्होंने अपनी कॉमिक टाइमिंग से सभी का दिल जीत लिया। उनकी एक्टिंग में ताजगी थी। अंदाज़ एकदम अलग था।
‘शोले’ में जेलर का रोल आइकॉनिक बन गया। उनके डायलॉग आज भी लोगों की ज़ुबान पर हैं। इसके अलावा ‘चुपके चुपके’, ‘सीता और गीता’, ‘रफ्तार’, ‘दूसरा आदमी’ जैसी फिल्मों में भी उनका किरदार यादगार रहा।
हर रोल में उन्होंने कुछ नया दिखाया। कभी सिर झुकाकर कॉमेडी की, कभी आंखों से ही सब कह दिया। उन्होंने कभी भी स्क्रीन टाइम को लेकर शिकायत नहीं की। उन्होंने जो भी किरदार निभाया, उसे यादगार बना दिया।
आज भी जब वो स्क्रीन पर आते हैं, तो चेहरे पर मुस्कान आ जाती है। उनकी कहानी बताती है कि अगर इरादा पक्का हो, तो रुकावटें टिक नहीं सकतीं। Old is Gold Films हमेशा ऐसे कलाकारों की सराहना करता है।