अमिताभ बच्चन और “दीवार” का असली रिश्ता | Old is Gold Films

अमिताभ बच्चन की फिल्म “दीवार” (1975) ने भारतीय सिनेमा को एक नया आयाम दिया। इस फिल्म का ‘मेरे पास माँ है’ संवाद आज भी दर्शकों के दिलों में बसा हुआ है। लेकिन क्या आप जानते हैं कि यह सिर्फ एक फिल्मी संवाद नहीं था, बल्कि यह अमिताभ बच्चन के असली संघर्षों से भी जुड़ा था?
अमिताभ बच्चन की असली जिंदगी की जद्दोजहद
1960 के दशक के अंत में, अमिताभ बच्चन मुंबई आए थे, लेकिन उन्हें लगातार असफलताओं का सामना करना पड़ा। उनकी लंबी कद-काठी और गहरी आवाज़ के कारण कई निर्माताओं ने उन्हें नकार दिया। कई वर्षों तक उन्हें कोई फिल्म नहीं मिली और वे बेरोजगारी के कठिन दौर से गुज़रे।
- उनकी शुरुआती फिल्में ‘सात हिंदुस्तानी’ और ‘रेशमा और शेरा’ फ्लॉप हो गईं।
- ऑल इंडिया रेडियो ने उनकी भारी आवाज़ के कारण उन्हें रिजेक्ट कर दिया था।
- कई रातें उन्होंने मरीन ड्राइव पर बिना छत के गुजारीं।
लेकिन वे हारे नहीं। संघर्ष जारी रखा और 1973 में ‘जंजीर’ ने उन्हें ‘एंग्री यंग मैन’ की छवि दी।
दीवार और असली प्रेरणा
“दीवार” में अमिताभ बच्चन का किरदार विजय वर्मा अपने बचपन के संघर्ष और समाज से मिली ठोकरों से गढ़ा गया था। यह किरदार असल में सलीम-जावेद ने मुंबई के एक गैंगस्टर हाजी मस्तान से प्रेरित होकर लिखा था, लेकिन इसमें अमिताभ के खुद के अनुभवों की झलक भी थी।
- ‘मेरे पास माँ है’ संवाद का असली अर्थ यह था कि सफलता और दौलत से ज्यादा अहम परिवार और प्यार होता है।
- फिल्म में विजय का संघर्ष, बेरोजगारी और समाज की ठोकरें अमिताभ की खुद की जर्नी से मेल खाती थीं।
- इस फिल्म ने अमिताभ को सुपरस्टार बना दिया और उनकी असली मेहनत रंग लाई।